(१ जनवरी १९९० में सफदर हाशमी की हत्या पर लिखीं गयी कविता)
वे कहीं गये नही हैं,
वे यही कही है
उनकें लिये रोना नही|
वे बच्चों की टोली में रंगीन बुश्शर्ट पहने बच्चों बे बीच गुम हैं
वे मैली बनियान पहने मलबे के ढेर सें बीन रहें हैं
हर पीली लाल प्लास्टिक कीं चीजें
वे तुम्हारे हाथ में चाय का कप पकडा जाते हैं
अखबार थमा जातें हैं
वे किसीं मशिन, किसी पेड, किसी दीवार
किसी किताब के पिछे छुप कर गातें हैं
पहाडिओं की तलहटीं में गांव की ओर जाने वाली सडक पर वें हसतें है
उनके हाथ में गेहूं और मकई की बालियाँ हैं
बहने जब होती हैं किसी जंगल की गली
किसी अंधेरे में अकेली
तो वें साइकिल में अचानक कहीं से तेज तेज आतें हैं
और उनकें आसपास घंटी बजा जाते हैं
वे हवा का जीवन, सूरज की सास, पानिं की बांसुरी
धरती की धडकन हैं
वे परछाईयाँ है, समुद्र मै फैली हुईं
वे सिर्फ हड्डीयाँ और त्वचा नहीं थें कि मौसम के अम्ल में गल जायेंगे
वे फकत खून नही थें के मिट्टि में सुख जायेंगे
वे कोई नौकरी नहीं थें कि बरखास्त कर दियें जायेंगे
वे जडें है हजारों साल पूरानी
वे पानी के सोते हैं
धरती कें भीतर भीतर पूरी पृथ्वी और पाताल तक वें रेंग रहें है
वे अपनें काम में लगें है जब कि हत्यारें खुष हैं कि
हमनें उन्हें खतम कर डाला हैं
वे किसी दौंलतमंद का सपना नहीं हैं कि
सिक्कों और अशर्फियों कि आवाज सें वे टूट जायेंगे
ये यहीं कहीं है
वे यही कही हैं
किसी दोस्त से गप्प लडा रहें हैं
कोई लडकी अपनी नींद में उनके सपने देख रही हैं
वे किसी से छुपकर किसी से किलने गयें हैं
उनकें लियें रोना नहीं
कोईं रेलगाडी आ रहीं है
दूर सें सीटी देती हुई
उनकें लियें आसूं ना-समझी हैं
उनकें लियें रोना नहीं
देखो वे तिनों, सफदर, पाश और सुकांत
और लोरका, और नजरूल, और मोलाईसे और नागार्जुन
और वे सारे कें सारे
जल्द्बाजी में आयेंगे
कास्ट्युम बदल कर नाटक में अपनी भूमिका निभायेंगे
और तालियों और कोरस
और मंच की जलतीं बुझती रोशनी कें बीच
फिर गायब हो जायेंगे
हां उन्हें ढूंढना जरुर
हर चेहरें को गौर से देखना
पर उनकें लियें रोना नहीं
रोकर उन्हें खोना नहीं
वे यहीं कहीं हैं....
वे यहीं कहीं हैं| - उदय प्रकाश
वे कहीं गये नही हैं,
वे यही कही है
उनकें लिये रोना नही|
वे बच्चों की टोली में रंगीन बुश्शर्ट पहने बच्चों बे बीच गुम हैं
वे मैली बनियान पहने मलबे के ढेर सें बीन रहें हैं
हर पीली लाल प्लास्टिक कीं चीजें
वे तुम्हारे हाथ में चाय का कप पकडा जाते हैं
अखबार थमा जातें हैं
वे किसीं मशिन, किसी पेड, किसी दीवार
किसी किताब के पिछे छुप कर गातें हैं
पहाडिओं की तलहटीं में गांव की ओर जाने वाली सडक पर वें हसतें है
उनके हाथ में गेहूं और मकई की बालियाँ हैं
बहने जब होती हैं किसी जंगल की गली
किसी अंधेरे में अकेली
तो वें साइकिल में अचानक कहीं से तेज तेज आतें हैं
और उनकें आसपास घंटी बजा जाते हैं
वे हवा का जीवन, सूरज की सास, पानिं की बांसुरी
धरती की धडकन हैं
वे परछाईयाँ है, समुद्र मै फैली हुईं
वे सिर्फ हड्डीयाँ और त्वचा नहीं थें कि मौसम के अम्ल में गल जायेंगे
वे फकत खून नही थें के मिट्टि में सुख जायेंगे
वे कोई नौकरी नहीं थें कि बरखास्त कर दियें जायेंगे
वे जडें है हजारों साल पूरानी
वे पानी के सोते हैं
धरती कें भीतर भीतर पूरी पृथ्वी और पाताल तक वें रेंग रहें है
वे अपनें काम में लगें है जब कि हत्यारें खुष हैं कि
हमनें उन्हें खतम कर डाला हैं
वे किसी दौंलतमंद का सपना नहीं हैं कि
सिक्कों और अशर्फियों कि आवाज सें वे टूट जायेंगे
ये यहीं कहीं है
वे यही कही हैं
किसी दोस्त से गप्प लडा रहें हैं
कोई लडकी अपनी नींद में उनके सपने देख रही हैं
वे किसी से छुपकर किसी से किलने गयें हैं
उनकें लियें रोना नहीं
कोईं रेलगाडी आ रहीं है
दूर सें सीटी देती हुई
उनकें लियें आसूं ना-समझी हैं
उनकें लियें रोना नहीं
देखो वे तिनों, सफदर, पाश और सुकांत
और लोरका, और नजरूल, और मोलाईसे और नागार्जुन
और वे सारे कें सारे
जल्द्बाजी में आयेंगे
कास्ट्युम बदल कर नाटक में अपनी भूमिका निभायेंगे
और तालियों और कोरस
और मंच की जलतीं बुझती रोशनी कें बीच
फिर गायब हो जायेंगे
हां उन्हें ढूंढना जरुर
हर चेहरें को गौर से देखना
पर उनकें लियें रोना नहीं
रोकर उन्हें खोना नहीं
वे यहीं कहीं हैं....
वे यहीं कहीं हैं| - उदय प्रकाश
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